भारत में न्यायिक नियुक्तियां : वर्तमान प्रक्रिया, चिंताएं और आगे का रास्ता – बिंदुवार व्याख्या
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भारत में न्यायिक नियुक्तियां हमेशा से एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। न्याय विभाग की हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से उजागर होता है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में 60 लाख मामले लंबित और न्यायाधीशों की 30% सीटें  रिक्त हैं। भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कार्यविधिक शक्तियों को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से टकराव चल रही है।

इस लेख में हम न्यायिक नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ऐतिहासिक टकराव, न्यायिक नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली और इससे जुड़ी चिंताओं पर नज़र डालेंगे। हम प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) पर भी ध्यान केंद्रित करेंगे, जो कॉलेजियम प्रणाली और अन्य देशों में न्यायिक नियुक्तियों के तरीकों को बदलने की मांग करता है।

कंटेंट टेबल
भारत में न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान क्या हैं? भारत में न्यायिक नियुक्ति का इतिहास क्या रहा है?

भारत में न्यायिक नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली क्या है?

कॉलेजियम प्रणाली के क्या लाभ हैं?

कॉलेजियम प्रणाली से जुड़ी चिंताएँ क्या हैं?

न्यायाधीशों की नियुक्ति की वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ क्या हैं?

आगे का रास्ता क्या होना चाहिए?

भारत में न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में संवैधानिक प्रावधान क्या हैं? भारत में न्यायिक नियुक्ति का इतिहास क्या रहा है?

न्यायिक नियुक्ति के संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions of Judicial Appointment)
अनुच्छेद 124 (2)

 

उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर सहित एक अधिपत्र द्वारा, उच्चतम न्यायालय और राज्यों में उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात् की जाएगी जिन्हें राष्ट्रपति उस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे। मुख्य न्यायाधीश से भिन्न न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश से हमेशा परामर्श लिया जाएगा।
अनुच्छेद 217 मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर सहित एक अधिपत्र द्वारा नियुक्त किया जाएगा।

नियुक्तियों को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ऐतिहासिक टकराव

औपनिवेशिक शासन (Colonial Rule)औपनिवेशिक शासन के दौरान, न्यायिक नियुक्तियों पर कार्यकारी का वर्चस्व था।
संवैधानिक बहस

(Consitutional Debates)

भारतीय संविधान के निर्माता नियुक्तियों में कार्यपालिका की पहुंच की संभावना को लेकर चिंतित थे। उन्होंने न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक नियुक्ति की एक संतुलित प्रणाली बनाने की मांग की। अनुच्छेद 124(2) और अनुच्छेद 217 का उद्देश्य न्यायिक नियुक्तियों की सुरक्षा में कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों को संतुलित करना था।
न्यायिक हस्तक्षेप

(Judicial Interventions)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रथम, द्वितीय और तृतीय न्यायाधीशों केस द्वारा दिए गए कई फैसलों के कारण भारत में कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना हुई। इन फैसले के कारण न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका हो गई, जिससे कार्यपालिका का प्रभाव कम हो गया।

 

प्रथम, द्वितीय और तृतीय न्यायाधीश केस

प्रथम न्यायाधीश केस (1981)

(First Judges Case (1981)

प्रथम न्यायाधीश केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 124 के तहत परामर्श का मतलब सहमति नहीं है। राष्ट्रपति CJI की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।
दूसरा न्यायाधीश केस (1993)

(Second Judges Case (1993)

सुप्रीम कोर्ट ने प्रथम न्यायाधीश केस में अपने पिछले फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि ‘परामर्श’ का मतलब ‘सहमति’ है। CJI को न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम के आधार पर अपनी सलाह तैयार करने की आवश्यकता होती है जिसमें CJI और दो वरिष्ठतम SC-न्यायाधीश शामिल होते हैं।
तृतीय न्यायाधीश केस (1998)

(Third Judges Case (1998)

सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का विस्तार करके इसे पांच सदस्यीय निकाय बना दिया, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायालय के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश शामिल हो गए। इससे नियुक्तियों पर न्यायिक नियंत्रण और मजबूत हो गया।

NJAC एक्ट और न्यायिक प्रतिक्रिया

99वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम, 2014

(99th Constitutional Amendment Act 2014 and the National Judicial Appointments Commission (NJAC) Act, 2014)

NJAC को उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने का प्रस्ताव किया गया था।

सदस्य- यह छह सदस्यीय निकाय था जिसमें शामिल थे

(a) पदेन अध्यक्ष – भारत के मुख्य न्यायाधीश

(b) पदेन सदस्य – उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश

(c) पदेन सदस्य – केन्द्रीय विधि और न्याय मंत्री

(d) पदेन सदस्य – सिविल सोसाइटी के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति।

(सिविल सोसाइटी के दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भारत के मुख्य न्यायाधीश, भारत के प्रधान मंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता से मिलकर एक समिति द्वारा नामित किया जाना था। प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक को SC/ST/OBC/अल्पसंख्यकों या महिलाओं में से नामित किया जाना था)

वीटो पावर- अधिनियम ने NJAC के किन्हीं 2 सदस्यों को किसी भी सिफारिश को वीटो करने का अधिकार दिया यदि वे इससे सहमत नहीं थे।

चतुर्थ न्यायाधीश केस (2015)

(Fourth Judges Case (2015)

सुप्रीम कोर्ट ने 99वें संशोधन अधिनियम और NJAC अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को रद्द कर दिया और कॉलेजियम प्रणाली की पुष्टि की। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि NJAC ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण करेगा और संविधान की बुनियादी संरचना को कमज़ोर कर देगा।

 NJAC से जुड़े मुद्दे

  1. सदस्यता मुद्दा (Membership Issue)- NJAC का सदस्य बनने के लिए दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को कानून में या न्यायालयों के कामकाज से संबंधित किसी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है। इससे सरकार के लिए किसी भी व्यक्ति को आयोग में नियुक्त करने का अवसर प्राप्त हो जाता।
  2. परिभाषाओं में अस्पष्टता (Ambuiguity in Definitions)- अधिनियमों में कुछ शर्तों को अपरिभाषित और अस्पष्ट छोड़ दिया गया था। उदाहरण के लिए, NJAC अधिनियम की धारा 5(1) के अनुसार NJAC को सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अनुशंसित करने की आवश्यकता है “यदि उन्हें पद धारण करने के लिए उपयुक्त माना जाता है”। हालाँकि, उपयुक्तता के मानदंड को परिभाषित नहीं किया गया है।
  3. वीटो शक्ति (Veto Power)- किन्हीं दो सदस्यों द्वारा वीटो शक्ति के प्रयोग के परिणामस्वरूप न्यायिक सहमति की अवहेलना हो सकती थी।
  4. निर्णायक मत के प्रावधान का अभाव (Absence of provision of Casting Vote)– CJI के पास कोई निर्णायक मत नहीं था। NJAC में सम संख्या में 6 सदस्य थे लेकिन अध्यक्ष, भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास कोई निर्णायक वोट नहीं था। एक निर्णायक वोट गतिरोध (मतों की सम संख्या में विभाजन के कारण) से बचने में उपयोगी हो सकता था।
  5. कार्यपालिका की अधिक पहुंच की संभावना (Possibility of executive Over reach)– NJAC के पास उपयुक्तता के मानदंड और SC और HC के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया निर्धारित करने वाले नियम बनाने की शक्ति थी। संसद के पास इन विनियमों को निरस्त करने की शक्ति थी, इस प्रकार विधायिका को न्यायपालिका से अधिक शक्तियाँ प्रदान की गईं।

भारत में न्यायिक नियुक्ति की वर्तमान प्रणाली क्या है?

चौथा न्यायाधीश केस में निर्णयों के माध्यम से, SC का भारत में न्यायिक नियुक्तियों पर दृढ़ नियंत्रण है।

कॉलेजियम के नेतृत्व वाली नियुक्ति- न्यायिक नियुक्तियाँ और स्थानांतरण (सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय) ‘कॉलेजियम प्रणाली’ के माध्यम से किए जाते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का कॉलेजियम 5 न्यायाधीशों वाला निकाय है, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करते हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल हैं। कॉलेजियम प्रणाली न्यायालय में नियुक्त किये जाने वाले न्यायाधीशों के नाम की अनुशंसा करता है।

कार्यकारी पृष्ठभूमि की जाँच- सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) जैसी अपनी एजेंसियों के माध्यम से उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि की जाँच भी करती है। सरकार इस चयन पर आपत्ति उठा सकती है और स्पष्टीकरण मांग सकती है। सरकार कोलेजियम की सिफ़ारिशों को पुनर्विचार के लिए लौटा सकती है।

हालाँकि, यदि कोलेजियम पुन: सिफ़ारिशें कि जाती हैं, तो सरकार को उन्हें (SC निर्णय) स्वीकार करना होगा।

कॉलेजियम प्रणाली के क्या लाभ हैं?

  1. कार्यपालिका के हस्तक्षेप की जाँच करता है (Checks Interference of the Executive)- कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका के प्रभाव से पृथक करती है। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। उदाहरण के लिए- आपातकाल के दौरान न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप, जब कई स्थापित परंपराओं को बाधित किया गया था, जैसे कि वरिष्ठतम न्यायाधीश की मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति।
  2. कार्यपालिका मुख्य वादी (Executive as Main Litigant)- सरकार न्यायालयों में ~50% मामलों में मुख्य वादी है। नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्रमुखता निर्णय में न्यायपालिका की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकती है।
  3. विशेषज्ञता की कमी (Lack of Expertise)- कार्यकारी के पास न्यायाधीश की आवश्यकताओं के संबंध में विशेषज्ञता की कमी हो सकती है। न्यायपालिका इस संबंध में सर्वोत्तम ‘न्यायाधीश’ हो सकती है।
  4. संविधान की रक्षा (Safeguarding the Constitution)- न्यायपालिका पर अत्यधिक सरकारी नियंत्रण न्यायाधीशों को बाहरी प्रभाव के प्रति संवेदनशील बना सकता है। संविधान और जीवन के अधिकार, निजता के अधिकार आदि जैसे अंतर्निहित सिद्धांतों की रक्षा के लिए न्यायिक स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है।

कॉलेजियम प्रणाली से जुड़ी चिंताएँ क्या हैं?

  1. संवैधानिक स्थिति का अभाव (Lack of constitutional Status)- कॉलेजियम संविधान में निर्धारित नहीं है। अनुच्छेद 124 में परामर्श का उल्लेख है, जिसकी व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने द्वितीय न्यायाधीश केश (1993) में ‘सहमति’ के रूप में की। उदाहरण के लिए- NJAC के खिलाफ सुनवाई के दौरान, तत्कालीन SC के बार अध्यक्ष ने तर्क दिया था कि संविधान सभा ने न्यायाधीशों की नियुक्ति CJI की सहमति से करने के प्रस्ताव पर विचार किया था, लेकिन अंततः इसे खारिज कर दिया गया
  2. पारदर्शिता के मुद्दे (Transparency issues)- चयन के लिए कोई आधिकारिक प्रक्रिया या कॉलेजियम के कामकाज के लिए कोई लिखित मैनुअल नहीं है। चयन (या अस्वीकृति) के लिए विचार किए गए पैरामीटर सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध नहीं हैं।
  3. जवाबदेही के मुद्दे (Accountability issues)- न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों का चयन अलोकतांत्रिक माना जाता है। न्यायाधीश लोगों या राज्य के किसी अन्य अंग (विधानमंडल या कार्यपालिका) के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। यह कामकाज में मनमानी का तत्व जोड़ सकता है।
  4. भाई-भतीजावाद के आरोप (Allegations of Nepotism)- प्रणाली के आलोचकों का तर्क है कि कॉलेजियम प्रणाली ने ‘वरिष्ट जजों’ को एकाधिकार दिया है, जिसमें मौजूदा न्यायाधीशों के करीबी रिश्तेदारों, रिश्तेदारों को उच्च न्यायपालिका में नियुक्त किया जाता है, जिससे भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है।
  5. नियुक्तियों में व्यक्तिपरकता और पूर्वाग्रह (Subjectivity and bias in appointments)- पारदर्शिता, जवाबदेही और बाहरी जांच की अनुपस्थिति नियुक्तियों में व्यक्तिपरकता और व्यक्तिगत पूर्वाग्रह के लिए जगह बनाती है। उदाहरण के लिए- कुछ मामलों में वरिष्ठता के सिद्धांत की अनदेखी करना।
  6. वैश्विक समतुल्यता का अभाव (Lack of Global Equivalent)- भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है जहां न्यायाधीश राज्य के किसी अन्य अंग की भागीदारी के बिना अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं।

न्यायाधीशों की नियुक्ति की वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ क्या हैं?

अधिकांश देशों में, न्यायिक नियुक्तियाँ सरकार की प्रशासनिक और विधायी शाखाओं द्वारा स्थापित एक समिति द्वारा की जाती हैं।

युनाइटेड किंगडम (United Kingdom)U.K. द्वारा पेश संवैधानिक सुधार अधिनियम, 2005 ने न्यायिक सेवा उम्मीदवारों को चुनने के उद्देश्य से दो आयोगों की स्थापना की। इन आयोगों में न्यायपालिका के साथ-साथ कार्यपालिका दोनों का प्रतिनिधित्व होता है।
दक्षिण अफ्रीका

(South Africa)

दक्षिण अफ्रीका में एक न्यायिक सेवा आयोग (JSC) है जो राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति की सलाह देता है। इस सेवा आयोग में सरकार की विभिन्न शाखाओं का प्रतिनिधित्व है।
फ़्रांस

(France)

न्यायाधीशों को न्यायपालिका की उच्च परिषद (Conseil Supérieur de la Magistrature) या, निचली अदालतों के मामले में, न्याय मंत्री द्वारा एक प्रक्रिया के माध्यम से चुना जाता है, जो उच्च परिषद से परामर्श या सलाह प्राप्त कर सकते हैं।

आगे की राह क्या होनी चाहिए?

  1. NJAC की आलोचना से छुटकारा पाकर उसका पुनरुद्धार (Revival of NJAC by getting rid of its criticism)- अन्य देशों की तरह न्यायपालिका, कार्यपालिका और नागरिक समाज के विचारों को ध्यान में रखते हुए NJAC पर फिर से काम किया जा सकता है। हालांकि, अधिनियम में वीटो शक्ति, CJI के साथ निर्णायक वोट की कमी और परिभाषित सदस्यता मानदंडों की कमी जैसी कमजोरियों को दूर किया जाना चाहिए।
  2. प्रक्रिया ज्ञापन को अंतिम रूप देना (Finalization MoP)- न्यायिक नियुक्तियों के संबंध में प्रक्रिया ज्ञापन (MoP) को अंतिम रूप देने के लिए सरकार और न्यायपालिका को सहयोग करना चाहिए। MoP में पारदर्शिता, पात्रता मानदंड, उम्मीदवारों के खिलाफ शिकायतों के लिए तंत्र आदि जैसे स्पष्ट दिशानिर्देश होने चाहिए।
  3. पारदर्शिता (Bring Transparency)- न्यायपालिका को नियुक्तियों की प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता लानी चाहिए। कॉलेजियम को उम्मीदवार के चयन और अस्वीकृति के कारणों का खुलासा करना होगा। विधि आयोग की 230वीं रिपोर्ट (2012) की सिफारिश है कि ‘जिन न्यायाधीशों के रिश्तेदार उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस कर रहे हैं, उन्हें उसी उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए’ इसे लागू किया जाना चाहिए।
  4. अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (All India Judicial Services (AIJS))- कई विशेषज्ञों ने निचली न्यायपालिका में न्यायाधीशों की गुणवत्ता में सुधार के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) की स्थापना के लिए तर्क दिया है। सभी हितधारकों के बीच सर्वसम्मति के बाद इस पर परामर्श किया जाना चाहिए और इसे लागू किया जाना चाहिए।
  5. सचिवालय (Secretariat)- विशेषज्ञों का सुझाव है कि न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक अच्छी तरह से संसाधनयुक्त स्वतंत्र सचिवालय स्थापित किया जाना चाहिए। साथ ही उम्मीदवारों का एक व्यापक डेटाबेस भी होना चाहिए। न्यायिक नियुक्तियों को शीघ्रता से करने के लिए रिक्तियों के बारे में पहले से जानकारी होना आवश्यक है।

निष्कर्ष

इस संदर्भ में, सरकार और न्यायपालिका को सौहार्दपूर्ण ढंग से मतभेदों को सुलझाना होगा और एक ऐसी प्रणाली पर पहुंचना होगा जो दोनों के बीच सबसे उपयुक्त हो: NJAC और कॉलेजियम प्रणाली।

न्यायिक नियुक्तियों की प्रणाली में तेजी से सुधार किया जाना चाहिए। न्यायिक रिक्तियां न्यायिक लंबितता का एक प्रमुख कारण है। राज्य के सभी अंगों को सुचारू कामकाज सुनिश्चित करने के लिए सही नागरिक-केंद्रित भावना के साथ एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए।

नई व्यवस्था स्थापित होने तक सरकार को कॉलेजियम की सिफारिशों का पालन करना चाहिए और नियुक्तियां शीघ्रता से करनी चाहिए। नियुक्तियों में देरी और अनावश्यक टकराव से बचना चाहिए।

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