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दिल्ली यूनिवर्सिटी मे शिक्षा के दौरान हम सब साथी कमलानगर खूब जाते थे. क्या बेपरवाह ज़िंदगी थी! हालाँकि मेरी थोड़ी कम बेपरवाह थी, क्यूंकी पढ़ने का मुझमे थोड़ा सनकपन है, और मेरे दोस्त मुझे बहुत चिड़ाते भी हैं इसके लिए. पर दोस्तों के साथ की हुई मस्ती बेपरवाह की ही केटेगरी मे जा सकती है. और आज जब हम चारों दोस्त IAS, डॉक्टर, प्रोफेसर इत्यादि बन गये हैं, तो वो कमलानगर की यादें ही सबसे बेपरवाह मेमोरी हैं हम सबकी. उन्ही एक बेपरवाह रास्तों की एक कहानी आप सबके लिए
एक रोज़ हम चले जा रहे थे विंडो शॉपिंग करते हुए. कपड़े, मेक अप, जूते सबके सब ऐसा लुभा रहे थे. और हम गप्पे करते हुए, हसीं टाहाके लगाते हुए चले जा रहे थे. एक मोड़ के पास मेरी नज़र एक छोटी सी मोची (कॉब्लर) की मेक-शिफ्ट, छुटकी सी दुकनिया (दुकान बोलना मुश्किल है उसके छोटे जगह को देख कर) पर पड़ी. कुछ चंद जूते, कुछ जूते पोलिश करने के समान इत्यादि रखे हुए थे. दो बोतलें रखी हुई थी. शायद शराब की. पता नही. और उसके बगल मे एक फटे हुए बोरे पर बैठी एक बच्ची. मेरी नज़र उस बच्ची पर ठहर गयी. चित्रकार, और साहित्य की रिसर्चर होने के कारण शायद मुझमे संवेदशीलता थोड़ी ज़्यादा है आम आदमियों से. पता नही क्यूँही मैं ठहर गयी वहाँ जबकि इतने लोग आ जा रहे थे उस बच्ची के पास से. वो बच्ची एक फटे हुए किताब को पढ़ रही थी. हालाँकि रात का समय था (लगभग 6-6.30 बज रहे थे शायद), और इतना उजाला नही था कि कोई उसमे अच्छी तरह पढ़ पाए. पर वो बच्ची पढ़ रही थी. मैं रुक के उसको देख रही थी. थोड़ी देर मे उसका एक छोटा सा भाई आया उसके पास मे, और किताब खिचने लगा. और वो बच्ची उस फटी हुई, मूडी टूडी किताब को ऐसे बचा रही थी जैसे कोई खजाना हो.
मैं खुद को नही रोक पाई उस बच्ची के पास जा कर लाड लड़ाकर यह पूछने से कि वो क्या और क्यूँ पढ़ रही है. मेरे पास जाते ही उसने किताब बगल मे रख दी और फटाफट कपड़ा हाथ मे लेके पूछा, “दीदी, पैर आगे करो”. मैने बोला मुझे तुमसे बातें करनी है. करूँ? उसको बहुत अज़ीब लगा और उसने कुछ बोला ही नही. खेर बहुत पीछे पड़ने से उसने अपनी किताब मुझे दिखाई. सर्व शिक्षा अभियान के तहत कक्षा 4 की अँग्रेज़ी की किताब थी. मैने बोला, “वाह तुम कक्षा 4 मे पढ़ती हो?” उसने बस माथा ना मे हिलाया. “तो ये माँग के लाई हो?” “नहीं”. “पापा के कबाड़ से निकाली है”. और तब उसने बोलना शुरू किया. उसने मुझे बताया की उसने आँगनबादी मे जाना सुरू किया था अपने गाँव मे. पर जो शिक्षिका उन्हे पढ़ाने आती थी वो उसे ढील हेरने (उसके शब्द , माने जुएँ निकालना) को कहती थी. जब वो ना करती थी तो खूब मार भी पड़ती थी. इसलिए उसने जाना खुद ही छोड़ दिया. बाद मे उसका परिवार दिल्ली आया और उसके बाबा ने उसे एक जूते बनाने के बोरे पर बैठा दिया. वो पढ़ना चाहती थी. उसने मुझे बताया की रूप नगर मे जो सरकारी स्कूल है उसके सामने वो कई बार खड़ी रही है. और सुनने का प्रयास करती रही है. और इसके लिए जब जब उसके बाबा ने उसको पकड़ा है रंगे हाथों, खूब गालियाँ पड़ी हैं उसे (रूप नगर के स्कूल के बगल मे ही एक कबाड़ी की बड़ी दुकान है, जहाँ बहुत कबाड़ वाले अपना कबाड़ बेचने आते हैं, उसका बाबा भी तभी उसको पकड़ लेता था जब वो अपने प्रयासों मे खोई रहती थी)
उसने मुझे ये बताया की वो जूता सीने वाली नही बनना चाहती पर बाबा ने सख़्त ताकीद दी है की अगर हर रोज़ कम से कम 200 रुपये नही कमाए तो घर नही ले जाएगा. मेरा दिल ऐसा कचॉटने लगा उस बच्ची के पढ़ने की इच्छा को देख कर. दिल्ली यूनिवर्सिटी मे पढ़ने और पढ़ाने के दौरान मैं कई बार ऐसे बच्चों के संपर्क मे आई हूँ जो इतने आराम से पढ़ रहे होते थे की अगर साल दो साल कुछ नौकरी नही की, फैल भी हो गये तो कोई फरक नही था. मेरे कुछ स्टूडेंट्स होली के दिन सामने, बिल्कुल सामने आकर पानी से भरा बलून फेक देते थे, क्यूंकी उन्हे जो फेमिनिसम की शिक्षा मैने कक्षा मे पढ़ाई थी उसे आत्मसात करने की ज़रूरत ही नही पड़ी की वो ये समझ सकें की होली किसी के शरीर पर उसके मर्ज़ी के बावजूद कंट्रोल करने का नाम नही होना चाहिए, चाहे वो कंट्रोल रंगों का ही क्यूँ ना हो. उनकी शिक्षा एक फॉरमॅलिटी थी. (हालाँकि सभी बच्चे ऐसे नही होते, नही थे, मेरे कुछ बच्चे बहुत अच्छे थे और तेज इतने थे की मैने बहुत कुछ उनसे सीखा) पर ये अंतर इतना बड़ा था की मैं सोचती रही पूरे रास्ते वापस आते वक्त की कुछ बच्चे कितना पढ़ना चाहते हैं, अपनी ग़रीबी या जो भी परिस्थितियाँ हैं उनसे निकलना चाहते हैं, पर ऐसा जकड़े हुए हैं अपने हालातों मे की निकल नही पाते. और बचपन मे ही कितने बड़े हो जाते हैं. सब कुछ समझते है
पढ़ना, कुछ बनना, सपने देखना कितनी महनगी चीज़ है उनके लिए. वो कितना तरसते हैं इस के लिए. कितनी मार, कितनी गालियाँ खाते हैं. कितना अपमान सहते हैं. वो सपने हमारे लिए, या हममे से बहुतों के लिए कितने आसान रहे हैं, आसान हैं. और अगर जिसे ये मौके मिलें हैं अपने सपनो को जीने के, वो इसकी कोशिश ना करें, इज़्ज़त ना करें इस मौके की, तो कितनी बेइज़्ज़ती है उन बच्चों की. उन बच्चों के गायब हो चुके बचपन की.
उस बच्ची से बातें हो ही रही थी की उसका बाबा आ गया और चिल्लाने लगा मुझपर. हालाँकि उसे भी पता था की कोई ग्राहक आया ही नही होगा, वरना उसने अपनी बेटी के मन मे जो ग़रीबी का दंश बिठाया है मार मार के, बच्ची की इतनी हिम्मत ही नही थी की वो काम को दरकिनार करके मुझसे बातें करती. मुझे सहानुभूति भी हुई उस बाप से, जोकि जानता है की वो अपनी बच्ची के पढ़ने की इच्छा को तोड़ देने के लिए मजबूर है. शायद उसके भी कुछ सपने होंगे, जो ज़िंदगी ने पूरे नही करने दिए. और शायद ये कड़वापन इसीलिए था. ग़रीबी इंसान को ऐसा ही रूखा कर देती है शायद. लेकिन उसके चिल्लाने पर मुझे लगा की कुछ तो कर ही देना चाहिए ताकि ये बच्ची कुछ देर तो आराम से पढ़ सके. मैने 200 रुपये उसे थमाए और बच्ची को बोला, “देखो, कोई बात नही”. मैं इससे ज़्यादा कुछ बोल ही नही पाई. मेरे दोस्त मुझे ढूँढते हुए आ गये, और मैं फिर चल पड़ी अपनी मिला जुला के लगभग ठीक ठाक सी, काम चलाऊ आराम परस्त ज़िंदगी जीने. पर उस दिन के बाद मैं कभी भी अपने सपने को, अपने काम को, अपने लक्ष्य को बे-संजीदगी से नही ले पाई. मुझे हर वक्त यही एहसास रहा उस दिन के बाद की महज किताबें खरीद के पढ़ सकना ही किसी बच्ची के लिए एक Unachievable ड्रीम है. और जब बाकिस्मती से मुझे वो ड्रीम जीने का मौका उपर से मिला है तो उसे मुझे खूब इज़्ज़त देनी है. खूब जीना है. खूब कोशिश करनी है.
उस एक छोटी बच्ची की याद मेरे जेहन आज तक, लगभग कई साल बीत जाने पर भी जिंदा है. मैं शुक्रगुज़ार हूँ उस बच्ची की जिसने मुझे भीड़ से अलग चलना सिखाया. मुझे ये बताया की मुझे ज़िंदगी मे कुछ और करूँ ना करूँ, शिक्षा के क्षेत्र मे योगदान ज़रूर देना है. शायद यह कहानी आपमे से कुछ लोगों को अपनी priviledged पोज़िशन की याद दिलाएगी की आपके पास एक कंप्यूटर है जहाँ आप ये लेख पढ़ रहे हैं, माँ-बाप हैं या खुद के कमाए पैसे हैं की आप किताबें खरीद सकते हैं, पढ़ सकते हैं. आपके पास चुनाव करने की आज़ादी है. आपके पास अपने हालातों से समझौता नही करने की choice है. और उस बच्ची को याद करके आप अपने काम को इज़्ज़त देंगे, अपनी कोशिशों को मायने देंगे. अपने सपनों को किसी खजाने की तरह समहालेंगे, ऐसी आशा है.
लिखना मुझे बहुत पसंद है. और मैं लिखती रहती हूँ खूब. हालाँकि सिविल सर्विस देने वाले बच्चों के लिए पहली बार लिख रही हूँ. इसलिए अगर आप मुझे सुझाव देंगे तो मैं बेहतरी के प्रयास कर पाऊँगी ताकि आपके लिए रेलवेंट चीज़ें लिख सकूँ. पाऊँगी आपके वक्त के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.